अग्नि-स्तुति

 

ऋग्वेद, प्रथम मण्डल


३७५


 

 

मधुभच्छन्दा वश्वामित्र:1

 

सूक्त 1

 

 

अग्निमीळे पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।।

 

(अग्निम् ईळे) मैं दिव्यज्वालारूप अग्निदेवकी उपासना करता हूं जो (पुर:-हितम्) पुरोहित है, ( यज्ञस्य देवम् ऋत्विजम्) यज्ञका दिव्य ऋत्विक् है, (होतारम्) ऐसा आवाहक है जो (रत्नधातमम्) आनन्दैश्वर्यको अत्यधिक प्रतिष्ठित करता है ।

 

 

अग्नि: पूर्वेभिर्ऋषिभिरीडचो नूतनैरुत । स देवां एह वक्षति ।।

 

(पूर्वेभि ऋषिभि:) प्राचीन ऋषियों द्वारा (ईडय:) उपास्य वह (अग्नि:) अग्निदेव (नूतनै: उत) नवीन ऋषियों द्वारा भी (ईडच:) उपास्य है । (स:) वह (देवान्) देवोंको (इह) यहाँ (आ वक्षति) लाता है ।

 

 

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव देवेदिवे । यशसं वीरवतत्तमम् ।।

 

(अग्निना) अग्निदेवके द्वारा मनुष्य (रयिम् अश्नवत्) उस ऐश्वर्यका उपभोग करता है जो (दिवे-दिवे पोषम् एव) निश्चय ही दिन-प्रतिदिन बढ्ता जाता है, (यशसम्) यशसे उज्जवल है और (वीरवत्तमम्) वीरशक्तिसे अतिशय पूर्ण है ।

 

 

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि । स इद् देवेषु गच्छति ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (यम् अध्वरं यज्ञं विश्वत:) जिस यात्रा-यज्ञके चारों ओर तू (परिभू: असि) अपनी सर्वतोव्यापी सत्तासे विद्यमान होता है, (स: इत्) वह यज्ञ सचमुच ही (देवेषु गच्छति) देवोंमें पहुंचता है ।

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1. श्रीअरविन्दकी कृति Hymns to the Mystic Fire (गुह्य अग्निके सूक्त)

    के प्रथम मण्डलके सूक्तोंका अनुवाद । --अनुवादक

३७७


 

५ 

 

अग्निर्होता कविस्मृ: सत्यश्चित्रश्रर्वस्तम: । देवो देवेभिरा गमत् ।।

 

(अग्नि:) अग्निदेव (होता) आह्वान करनेवाला है, (कविक्रतु:) कान्त-दर्शी संकल्प है, (सत्य:) सत्यस्वरूप है और (चित्नश्रवस्तम:) समृद्ध रूपसे विविध अन्त:-श्रवणोंसे अतिशय सम्पन्न है । (देव:) वह देव (देवेभि:) देवोंके साथ (आ गमत्) आए ।

 

यदङ्ग: दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत् सत्यमङ्गिरः ।।

 

(अङग अग्ने) हे अग्निदेव ! (दाशुषे) आत्मदान करनेंवालेके लिए (त्वम्) तू (यद् भद्रम्) जो कल्याणकारी भलाई (करिष्यसि) करेगा, (तत् तव सत्यम् इत् अङिगर:) वह है वह परम सत्य जो निश्चय ही तेरा सत्य है,   [ तू उसे अपना परम सत्य ही प्राप्त करा देगा ]   हे अंगिरा !

 

 

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्षिया वयम् । नमो भरन्त एमसि ।।

 

(अग्ने) हे अग्निदेव ! (वयं) हम (दिवे-दिवे) दिन-प्रतिदिन (दोषा-वस्त:) अंधकार और प्रकाशके समय (धिया) अपने विचारके द्वारा (नम: भरन्त:) नमस्कारको वहन करते हुए (त्वा उप आ इमसि) तेरे निकट आते हैं ।

 

राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदियिB । वर्धमान स्वे दमे ।।

 

(अध्वराणां राजन्तम्) यात्नारूप यज्ञोंके शासक, (ऋतस्य दीदिविं गोपाम्) सत्यके देदीप्यमान संरक्षक, (स्वे दमे वर्धमानंम्) अपने घरमें वर्ध-मान [ त्वा उप आ इमसि ]  तुझ अग्निदेवके निकट हम आते हैं ।

 

 

स नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव । सचस्वा नः स्वस्तये ।।

 

(स:) ऐसा तू, [ इसलिए तू ] (अग्ने) हे अग्निदेव ! (नः) हमारे लिए (सूनवे पिता इव) पुत्रके लिए पिताकी तरह (सु-उपायन: भव) सुगमतासे प्राप्त होनेवाला बन । (स्वस्तये) हमारी सुखपूर्ण स्थितिके लिए तू (न: सचस्व) हमारे साथ दृढ़तासे जुड़ा रह ।

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